ये फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म जियाउल हक़ के साम्प्रदायिक और कटरपंथी पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ पैदा हुयी थी। मैंने उर्दू के कुछ अलफ़ाज़ हिंदी में अर्थ के साथ लिखें हैं। आजकल ये नज़्म हिन्दू विरोधी बताई जारही है। आप पढ़िए और बताइये कि ये कितनी हिन्दू विरोधी है.
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो “लोह-ए-अज़ल “(विधि के विधान) में लिखा है
जब “ज़ुल्म-ओ-सितम” (अत्याचार) के “कोह-ए-गरां”(घने पहाड़) रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम “महकूमों” (रियाया या शासित या शोषित वर्ग) के पाँव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम ( सताधीश) के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब “अर्ज-ए-ख़ुदा” (शासक जो अपने को परमेशवर समझ बैठे हैं ) के काबे से
सब “बुत” (सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले) उठवाए जाएँगे
हम “अहल-ए-सफ़ा” (साफ़ सुथरे या पवित्र लोग)
“मरदूद-ए-हरम”( धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग या किसी सुविधा से वंचित ) “मसनद” (उपयुक्त गद्दी) पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा “अल्लाह” (परमेश्वर ) का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो “मंज़र” (दृश्य)भी है “नाज़िर”(देखने वाला) भी
उट्ठेगा “अन-अल-हक़” (मैं ही सत्य हूँ या अहम् ब्रह्मास्मि) का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी “खुल्क-ए-ख़ुदा” (आम जनता या ईश्वर की प्रकृति )
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
“मुझे लगता है, इतिहास में जब भी सरकार द्वारा कलम को अपनी तरफ झुकाने की कोशिश या तोड़ने की कोशिश होती है, तो ये संकेत होता है डिक्टेटरशिप के आगमन का। ”