बचपन का वो सुकून भरा जमाना ,
सपने देखना और उनके लिए दौड़ लगाना,
उन्हें पाकर फिर से सपनो में खो जाना।
बचपन में सपने हमेशा हम बड़े बुना करते थे,
उन्हें पाने के लिए बस दौड़ लगा दिया करते थे
जीने की और राह कहाँ हम चुनते थे।

पर बड़ा हुआ तो सपनो को छोटा होते देखा,
मेरे जज्बातों से उन्हें नाता तोड़ते हुये देखा,
हालत से मेरी समझौता कर उन्हें सोते हुए देखा।

पर अब भी जारी है दौड़,
भले अपने नहीं,
किसी और के सपनो को पूरा करने की दौड़
जीना छोड़।
१२ घंटे यूँ ही दे देता हूँ ऑफिस को, अपना सुकुन छोड़।
सुकून के पल अगर नींद बनकर आयें,
तो कॉफ़ी के मग में उसे घोलकर हम पी जायें।
Weekends के इंतज़ार में काटें हम दिन,
सोने में, छोटी मोटी चीज़ों में निकल जाता है Weekends का जिन्न।
एक दिन बैठा सोचने, अपनी दौड़ का कमाया,
क्या खोया, मैंने क्या पाया,
कुछ सही सा हिसाब न बन पाया।
समझ में कुछ न आया,
सारा जोड़, गुणा, भाग था आजमाया।

अचानक जो नजर आयी घडी,
चौपट हो गयी सारी लिखा पड़ी।
ये सवाल तो विज्ञानं का था,
मैं फालतू में Maths में सर खफा रहा था।
मेरी दौड़ मेरे सपनो के लिए नहीं थी,
बस घडी के काँटों से जो मेरी जंग छिड़ी थी।
कितना भी दौडूं, अगर Displacement हो जीरो,
कितना काम किया, क्या है कमाया,
सब होना ही है नील बटे जीरो,
क्यों हीरो !

अब घडी के काँटों से नहीं,
अपने सपनो की तितलियाँ पकड़ने दौडूँगा।
भले ही लम्बे कदम नहीं, Baby Steps चलूँगा,
Company के लिए केवल काम,
पर अपने सपने के लिए जीऊँगा।
वक़्त मिलेगा तो उसी के लिए भी दौडूँगा।