समझदारी का ये चोला, पता नहीं कब औढ़ लिया
गंभीरता ने चेहरे की मासुमियत छिन्नकर,
खुशियों से, पता नहीं कब मुँह मोड़ लिया
अभी तो बैठे थे सब दोस्त मिलकर,
बेफिक्री का आलम, पता नहीं कब तोड़ लिया।
कभी रुकते नहीं थे पैर हॉस्टल के एक कमरे में,
ऑफिस के एक केबिन में, पता नहीं कब खुद को बांध लिया।
धधकती उस उमंग से भरी अग्नि में,
निराशा के बाँध से , पता नहीं हमने पानी कब छोड़ लिया।