वो पहाड़ों के पटाल वाले घर याद हैं न न जाने उन बदक़िस्मतों की दिवाली आएगी तो आएगी कब। बस कुछ ही दीये लगते और वो जगमगा जातें हैं दो- चार बात करने वाले मिल जायें तो चहल-पहल से खिल जातें हैं सुने पड़े वो अँधेरे घर आज भी अपने कुल दीपकों की राह ताकतें हैं …
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